Saturday, November 15, 2008

www.girishbillore.com or http://blog.girishbillore.com/

हिन्दी-संसार www.girishbillore.com एक ऐसा संकल्प है जो अंतरजाल पर हिन्दी के विकास की दस्तक में एक और दस्तक ही है . बरसों से मन में इस तरह की वेब साईट सपना बुना था ,किंतु अंतर्जाल के ज्ञान का अभाव तथा मूर्ख समझने वालों की बहुतायत से काम पूर्ण नहीं हो सका था . किंतु ब्लॉग "प्रथम" के माडरेटर अंकित कुमार जो इंदौर में अध्ययनरत है ने मुझे केवल डोमिन नेम के मूल्य पर साईट तैयार करके दी है अभी इसे सजा संवार भी रहें हैं वे ........... सुधि पाठको सच तो यह है की जबलपुर में जितनों से भी मेरी बात हुई सभी इस काम को लेकर मुझे अपना शिकार समझते थे . एक युवक ने तीन साल पहले मुझसे 3000/- लेकर आज तक मेरा काम नहीं किया किंतु मुझे हताशा नहीं हुई ,शायद उस युवक की कोई मज़बूरी रही होगी अन्य कई युवकों-युवतियों ने जो काम की तलाश में मेंरे संपर्क में आए से पता चला कि --"वेब साईट बनाने में बड़ा झंझट है सर फेस वाइस वर्क होता है, 15000 रूपए तक खर्चने होंगे . ?" आज भारत की चंद्रयान कोशिश सफल रही और मैं भी कि आज यानी 14/11/2008 मुझे भी मेरा संकल्प पूर्ण कराने का मौका मिला अंकित के सहयोग से . ankit@pratham.net की कोशिशों से मुझे मेरी वेब साईट बनाने में जो सहयोग मिला है मैं व्यक्तिगत रूप से उनका आभारी हूँ जो भी इस वेब साइट से जुड़ना चाहें कृपया मुझे girish@girishbillore.com , ankit@pratham.net पर मेल करें आपका कृपाकांक्षी

Tuesday, November 11, 2008

एक शहर एक दावानल ने निगला नाते चूर हुए

► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄►

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की से पलती आग

यौवन की दहलीज़ को पाके बनती संज्ञा जलती आग .

********

एक शहर एक दावानल ने निगला नाते चूर हुए

मिलने वाले दिल बेबस थे अगुओं से मज़बूर हुए

झुलसा नगर खाक हुए दिल रोयाँ रोयाँ छलकी आग !

********

युगदृष्टा से पूछ बावरे, पल-परिणाम युगों ने भोगा

महारथी भी बाद युद्ध के शोक हीन कहाँ तक होगा

हाँ अशोक भी शोकमग्न था,बुद्धं शरणम हलकी आग !

********

सुनो सियासी हथकंडे सब, जान रहे पहचान रहे

इतना मत करना धरती पे , ज़िंदा न-ईमान रहे !

अपने दिल में बस इस भय की सुनो 'सियासी-पलती आग ?

******** ► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄► ◄►

Monday, November 10, 2008

जी हाँ मैंने "पहल" का प्रकाशन बंद कर दिया -ज्ञानरंजन

पंकज स्वामी गुलुश नें बताया की ज्ञान जी ने अपना निर्णय सूना ही दिया की वे पहल को बंद कर देंगे कबाड़खाना ने इस समाचार को को पहले ही अपने ब्लॉग पर लगा दिया था. व्यस्तताओं के चलते या कहूं तिरलोक सिंह

होते तो ज़रूर यह ख़बर मुझे समय पर मिल गई होती लेकिन इस ख़बर के कोई और मायने निकाले भी नहीं जाने चाहिए . साहित्य जगत में यह ख़बर चर्चा का बिन्दु इस लिए है की मेरे कस्बाई पैटर्न के शहर जबलपुर को पैंतीस बरस से विश्व के नक्शे पर अंकित कर रही पहल के आकारदाता ज्ञानरंजन जी ने पहल बंद कराने की घोषणा कर दी . पंकज स्वामी की बात से करने बाद तुंरत ही मैंने ज्ञान जी से बात की .

ज्ञान जी का कहना था :"इसमें हताशा,शोक दु:ख जैसी बात न थी न ही होनी चाहिए .दुनिया भर में सकारात्मक जीजें बिखरीं हुईं हैं . उसे समेटने और आत्म सात करने का समय आ गया है"

पहल से ज्ञानरंजन से अधिक उन सबका रिश्ता है जिन्होंने उसे स्वीकारा. पहल अपने चरम पर है और यही बेहतर वक़्त है उसे बंद करने का .

हाँ,पैंतीस वर्षों से पहल से जो अन्तर-सम्बन्ध है उस कारण पहल के प्रकाशन को बंद करने का निर्णय मुझे भी कठोर और कटु लगा है किंतु बिल्लोरे अब बताओ सेवानिवृत्ति भी तो ज़रूरी है.

ज्ञान जी ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा :-"हाँ क्यों नहीं, पहल की शुरुआत में तकलीफों को मैं उस तरह देखता हूँ की बच्चा जब उम्र पता है तो उसके विकास में ऐसी ही तकलीफों का आना स्वाभाविक है , बच्चे के दांत निकलने में उसे तकलीफ नैसर्गिक रूप से होती है,चलना सीखने पर भी उसखी तकलीफों का अंदाज़ आप समझ सकते हैं "उन घटनाओं का ज़िक्र करके मैं जीवन के आनंद को ख़त्म नहीं करना चाहता. सलाह भी यही है किसी भी स्थिति में सृजनात्मकता-के-उत्साह को कम न किया जाए. मैं अब शारीरिक कारण भी हैं पहल से अवकाश का .

ज्ञान जी पूरे उछाह के साथ पहल का प्रकाशन बंद कर रहें हैं किसी से कोई दुराग्रह, वितृष्णा,वश नहीं . पहल भारतीय साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित एवं पठित ऐसी पत्रिका है जो कल इतिहास बन के सामने होगी बकौल मलय:"पहल,उत्कृष्ट विश्व स्तरीय पत्रिका इस लिए भी बन गई क्योंकि भारतीय रचना धर्मिता के स्तरीय साहित्य को स्थान दिया पहल में . वहीं भारत के लिए इस कारण उपयोगी रही है क्योंकि पहल में विश्व-साहित्य की श्रेष्ठतम रचनाओं को स्थान दिया जाता रहा'' मलय जी आगे कह रहे थे की मेरे पास कई उदाहरण हैं जिनकी कलम की ताकत को ज्ञान जी ने पहचाना और साहित्य में उनको उच्च स्थान मिला,

प्रेमचंद के बाद हंस और विभूति नारायण जी के बाद "वर्तमान साहित्य के स्वरुप की तरह पहल का प्रकाशन प्रबंधन कोई और भी चाहे तो विराम लगना ही चाहिए ऐसी कोशिशों पर पंकज गुलुश से हुई बातचीत पर मैंने कहा था "

इस बात की पुष्टि ज्ञान जी के इस कथन से हुई :-गिरीश भाई,पहल का प्रकाशन किसी भी स्थिति में आर्थिक कारणों,से कदापि रुका है आज भी कई हाथ आगे आएं हैं पहल को जारी रखे जाने के लिए . किंतु पहल के सन्दर्भ में लिया निर्णय अन्तिम है.

पेप्पोर रद्दी पेप्पोर

Saturday, November 1, 2008

'पहल' की यात्रा जारी रहे -जारी रहेगी

वीरेन डंगवाल

पेप्पोर रद्दी पेप्पोर

पहल का पटाक्षेप !

वीरेन डंगवाल

पोस्ट के टिप्पणी कार

पोस्ट के टिप्पणी कार

शिरीष कुमार मौर्य

संगीता पुरी

अनूप शुक्ल

युग-विमर्श

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी महेन

Dr. Vijay Tiwari "Kislay"

बोधिसत्व

ANIL YADAV

November 2, 2008 3:17 AM

अजित वडनेरकर गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" Ek ziddi dhun

ravindra vyas

विजयशंकर चतुर्वेदी

Bloggervijay gaur/विजय गौड़

Bloggerवर्षा

Bloggerसिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

Bloggerबोधिसत्व

BloggerDineshrai Dwivedi दिनेशराय द्विवेदी

BloggerEk ziddi dhun

Bloggerअजित वडनेरकर

और मैं

ज्ञानरंजन

रुकने का नाम नहीं है

वो ज़ारी था जारी है ज़ारी रहेगा

अनवरत

वो न तो शब्द है न बिम्ब है न आभास है

वो एक दम साफ़ शब्दों में "ज्ञानरंजन है !"

द्रढ़ है संयम है योगी है

मुझे ज्ञानरंजन में कोई

नकली आदमीं नज़र नहीं आया

· मुकुल

Sunday, November 9, 2008

एक थे तिरलोक सिंह

एक व्यक्तित्व जो अंतस तक छू गया है उनसे मेरा कोई खून का नाता तो नहीं किंतु नाता ज़रूर था कमबख्त डिबेटिंग गज़ब चीज है बोलने को मिलते थे पाँच मिनट पढ़ना खूब पङता था लगातार बक-बकाने के लिए कुछ भी मत पढिए ,1 घंटे बोलने के लिए चार किताबें , चार दिन तक पढिए, 5 मिनट बोलने के लिए सदा ही पढिए, ये किसी प्रोफेसर ने बताया था याद नहीं शायद वे राम दयाल कोष्टा जी थे ,सो मैं भी कभी जिज्ञासा बुक डिपो तो कभी पीपुल्स बुक सेंटर , जाया करता था। पीपुल्स बुक सेंटर में अक्सर तलाश ख़त्म हों जाती थी, वो दादा जो दूकान चलाते थे मेरी बात समझ झट ही किताब निकाल देते थे। मुझे नहीं पता था कि उन्होंनें जबलपुर को एक सूत्र में बाँध लिया है। नाम चीन लेखकों को कच्चा माल वही सौंपते है इस बात का पता मुझे तब चला जब पोस्टिंग वापस जबलपुर हुयी। दादा का अड्डा प्रोफेसर हनुमान वर्मा जी का बंगला था। वहीं से दादा का दिन शुरू होता सायकल,एक दो झोले किताबों से भरे , कैरियर में दबी कुछ पत्रिकाएँ , जेब में डायरी, अतरे दूसरे दिन आने लगे मलय जी के बेटे हिसाब बनवाने,आते या जाते समय मुझ से मिलना भूलने वाले व्यक्तित्व ..... को मैंने एक बार बड़ी सूक्ष्मता से देखा तो पता चला दादा के दिल में भी उतने ही घाव हें जितने किसी युद्धरत सैनिक के शरीर,पे हुआ करतें हैं। कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व, मुझे मोहित करने में सदा हे सफल होता..... ठाकुर दादा,इरफान,मलय जी,अरुण पांडे,जगदीश जटिया,रमेश सैनी,के अलावा,ढेर सारे साहित्यकार के घर जाकर किताबें पढ़वाना तिरलोक जी का पेशा था। पैसे की फिक्र कभी नहीं की जिसने दिया उसे पढ़वाया , जिसके पास पैसा नहीं था या जिसने नही दिया उसे भी पढवाया कामरेड की मास्को यात्रा , संस्कार धानी के साहित्यिक आरोह अवरोहों , संस्थाओं की जुड़्न-टूटन को खूब करीब से देख कर भी दादा ने इस के उसे नहीं कही। जो दादा के पसीने को पी गए उसे भी कामरेड ने कभी नहीं लताडा कभी मुझे ज़रूर फर्जी उन साहित्यकारों से कोफ्त हुई जिनने दादा का पैसा दबाया कई बार कहा " दादा अमुक जी से बात करूं...? रहने दो ...? यानी गज़ब का धीरज सूरज राय "सूरज" ने अपने ग़ज़ल संग्रह के विमोचन के लिए अपनी मान के अलावा मंच पे अगर किसी से आशीष पाया तो वो थे :"तिरलोक सिंह जी " इधर मेरी सहचरी ने भी कर्मयोगी के पाँव पखार ही लिए। हुआ यूँ कि सुबह सवेरे दादा मुझसे मिलने आए किताब लेकर आंखों में दिखना कम हों गया था,फ़िर भी आए पैदल सड़क को शौचालय बनाकर गंदगी फैलाने वाले का मल उनके सेंडील मे.... मेन गेट से सीदियों तक गंदगी के निशान छपाते ऊपर गए दादा. अपने आप को अपराधी ठहरा रहे थे जैसे कोई बच्चा गलती करके सामने खडा हो. इधर मेरा मन रो रहा था की इतना अपनापन क्यों हो गया कि शरीर को कष्ट देकर आना पड़ा दादा को .संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हुयी की गंदगी से सना बूडा आदमी गंदगी परोस गया गेट से सीडी तक . सुलभा के मन में करूणा ने जोर मारा . उनके पैर धुलाने लगी .

अगर चर्चा ऐसी हो तो कैसी रहेगी

ब्लॉग विवरण/शीर्षक

टिप्पणी

*

हल्की शीत की उत्तरभारतीय सिहरन के बीच : अपनी आग में निरंतर दहक रहा देश">हल्की शीत की उत्तरभारतीय सिहरन के बीच : अपनी आग में निरंतर दहक रहा देश

वाजपेयीजी एक कला चैनल खोलिए प्लीज

सुपर्ब यानी सर्वश्रेष्ठ

सुपर्ब यानी सर्व श्रेष्ठ सुंदर आलेख

***

*** *

ब्लागों का ब्लॉग

जागते रही समस्याओं से भागते रही ब्लाग पे ब्लॉग लादते रहिये जी हाँ अपने बलाग पे टिप्पणियों की आमदनी की चिंता छोड़ दूजों के ब्लॉग पे टिप्पणी दागते रहिए आपके ब्लॉग पे टिप्पणी ऐसे ही आएंगी आपके ब्लॉग की गरिमा बढाएगी आपके ब्लॉग को विश्व भर में ले जाएँगी . आभास दुनिया के लोग साहित्य की सेवा भी करतें जिस बात से मीडिया वाले कतरातें है ब्लॉगर उस बात को सामने ले आते । आप सभी ब्लॉगर भाइयो दीदियों । मेरा सादर अभिवादन स्वीकारिए सारे गिले शिकवे दूर कर मेरे ब्लॉग पर पधारिए
मिसफिट Misfit,மிச்பிட்,... ,ಮಿಸ್ಫಿತ್ ,മിസ്ഫിറ്റ് श्रद्धा जैन
महाशक्ति समूह Tara Chandra Gupta "MEDIA GURU" Abhiraj चन्दन चौहान मिहिरभोज देवेन्‍द्र प्रताप सिंह mahashakti ALOK SINGH Vishu तेज़ धार maya TARUN JOSHI "NARAD" anoop अभिषेक शर्मा Kavi Kulwant मनोज ज़ालिम "प्रलयनाथ" राज कुमार v_rsa_s_ingh आशुतॊष पंगेबाज Suresh Chiplunkar 8अधिक
"खज़ाना"

Friday, November 7, 2008

अँधा बांटे रेवडी : ब्लॉग चर्चा

"चर्चा में शामिल चिट्ठाकारों एवं ब्लागवाणी का आभार जिनके कारण चर्चा पूर्ण हुई "

Wednesday, November 5, 2008

"जय ब्लॉगर जय हिन्दी ब्लागिंग " लिंक पोस्ट

'' टिप्पणी चर्चा '', करूँ भी तो क्यों न ? चर्चाएँ ही तो देश में हो रहीं हैं और देश चल ये रहा है........................

Monday, November 3, 2008

"सुनो....सुनो.....सुनो.....साहित्य लेखन के विषय चुक गए हैं...! "

"कसैला मुंह "- लेकर कहाँ जाएँ भाई पंचम जी ? निपट विष पचाऊ लग रहे हैं । असल में डर ये है कि " सफ़ेद झक्क घर " के सामने से निकलने वाला कोई विनम्र पुरूष उनके " सफ़ेद झक्क घर "-घर की दीवार पे माडर्न आर्ट न बना दे । मेरी राय में अपनी भी जेईच्च प्राबलम्ब है हम तो इस के शिकार हुए हैं चलो अच्छा हुआ अब इकला चलो का नारा सही लगता है हमको ।"अबोध का बोध पाठ " जैसी सार्थक पोस्ट लिखी जा रहीं हो और ......और लम्हे हँस रहें हैं ')">तो हम भी पीछे क्यों रहें भई ! अनुजा जी आदतन धमाका करतीं आज की पोस्ट के लिए मेरी ओर से लाल-पीला-हरा-भगवा-नीला हर रंग का सलाम !! अनुजा जी इनके बारे में पहले ही बता चुका हूँ कि भाई लोग कहते फ़िर रहे हैं इस कथा में देखिए:-

चिंता और ऊहापोह वश ,गुरुदेव ने ऐलान कर दिया-"सुनो....सुनो.....सुनो.....साहित्य लेखन के विषय चुक गए हैं...! "क्या................विषय चुक गए हैं ? हाँ, विषय चुक गए हैं ! तो अब हम क्या करें....? विषय का आयात करो कहाँ से .... ? चीन से मास्को से .....? अरे वही तो चुक गए हैं....! फ़िर हम क्या करें..........? लोकल मेन्यूफेक्चरिंग शुरू करो औरत का जिस्म हो इस पे लिखो भगवान,आस्था विश्वास....भाषा रंग ..! अरे मूर्ख ! इन विषयों पे लिख के क्या दंगे कराएगा . तो इन विषयों पर कौन लिखेगा ? लिखेगा वो जिसका प्रकाशन वितरण नेट वर्क तगड़ा हो वही लिखेगा तू तो ऐसा कर गांधी को याद कर , ज़माना बदल गया बदले जमाने में गांधी को सब तेरे मुंह से जानेंगे तो ब्रह्म ज्ञानी कहाएगा ! गुरुदेव ,औरत की देह पर ? लिख सकता है खूब लिख इतना कि आज तक किसी ने न लिखा हो ******************************************************************************************

लोग बाग़ चर्चा करेंगे, करने दो हम यही तो चाहतें हैं कि इधर सिर्फ़ चर्चा हो काम करना हमारा काम नहीं है. " तो गुरुदेव, काम कौन करेगा ? जिसको काम करके रोटी कमाना हो वो करे हम क्यों हम तो ''राजयोग'' लेकर जन्में है.हथौड़ा,भी सहज और हल्का सा हो गया है . वेद रत्न शुक्ल,, की टिप्पणी अपने आप में एक पूरी पोस्ट बन गई इस ब्लॉग पर ***********************************************************************************
चलो चलते-चलते एक गीत हो जाए अदेह के सदेह प्रश्न कौन गढ़ रहा कहो ? कौन गढ़ कहो ? बाग़ में बहार में सावनी फुहार में पिरो गया किमाच कौन? मोगरे हार में ? और दोष मेरे सर कौन मढ़ गया कहो..? एक गीत आस का एक नव प्रयास सा गीत था अगीत था या कोई कयास था..! ताले मन ओ'भाव पे कौन जड़ गया कहो ..? जो भी सोचा बक दिया अपना अपना रख लिया असहमति पे आपने सदा ही है सबक दिया पग तले मुझे दबा कौन बढ़ गया कहो ..? (आभारी हूँ जिनका :अंशुमाली रस्तोगी,मत विमत,पंचम जी और उनका जो सहृदयता से चर्चा का आनंद लेंगे ) और ब्लॉगवाणी के प्रति कृतज्ञ हूँ

इंक ब्लागिंग

इंक ब्लागिंग की सचाई ये है कि तीसरा शेर सुधारने के लिए कटा पिटी करनी होती किंतु ऑन लाइन में ऐसा नहीं फ़िर कित्ते इंतजाम लगते हैं अनूप जी,है समीर भाई लिखो फोटो खींचो नीले दाँतों से ट्रांसफर करो यानी घंटे भर की मशक्कत कोई आएगा इसकी कोई गारंटी नहीं !
ग़ज़ल ख़ुद सुलगते रहे सुलगाते रहे ख़ुद को ख़ुद की अगन से जलाते रहेप्यार में डूब कर हुए एक के प्यार उनका हो पावन मनाते रहेसच से जब भी हुआ आमना-सामना बगलें झांका किए मुंह चुराते रहे । जिस जहाँ ने दिया नाम शोहरत हमें बदुआऐँ उसे ही सुनाते रहे । हम हमीं में जिए तो जिए क्या जिए रेवडी ख़ुद ही ख़ुद को खिलाते रहे ॥
{ये ग़ज़ल है या नहीं मुझे नही मालूम अत:इसे पद्य का दर्जा ही दे दीजिए यही ग़ज़ल का अनुशासन न हो इसमें तो }

Sunday, November 2, 2008

लता जी का सुमधुर गीत

Lata Mangeshkar widget by 6L & AM

उमर-खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद कर्ता कवि स्वर्गीय केशव पाठक

मुक्तिबोध की ब्रह्मराक्षस का शिष्य, कथा को आज के सन्दर्भों में समझाने की कोशिश करना ज़रूरी सा होगया है । मुक्तिबोध ने अपनी कहानी में साफ़ तौर पर लिखा था की यदि कोई ज्ञान को पाने के बाद उस ज्ञान का संचयन,विस्तारण,और सद-शिष्य को नहीं सौंपता उसे मुक्ति का अधिकार नहीं मिलता । मुक्ति का अधिकारक्या है ज्ञान से इसका क्या सम्बन्ध है,मुक्ति का भय क्या ज्ञान के विकास और प्रवाह के लिए ज़रूरीहै । जी , सत्य है यदि ज्ञान को प्रवाहित न किया जाए , तो कालचिंतन के लिए और कोई आधार ही न होगा कोई काल विमर्श भी क्यों करेगा। रहा सवाल मुक्ति का तो इसे "जन्म-मृत्यु" के बीच के समय की अवधि से हट के देखें तो प्रेत वो होता है जिसने अपने जीवन के पीछे कई सवाल छोड़ दिये और वे सवाल उस व्यक्ति के नाम का पीछा कर रहेंहो । मुक्तिबोध ने यहाँ संकेत दिया कि भूत-प्रेत को मानें न मानें इस बात को ज़रूर मानें कि "आपके बाद भी आपके पीछे " ऐसे सवाल न दौडें जो आपको निर्मुक्त न होने दें !जबलपुर की माटी में केशव पाठक,और भवानी प्रसाद मिश्र में मिश्र जी को अंतर्जाल पर डालने वालों की कमीं नहीं है किंतु केशवपाठक को उल्लेखित किया गया हो मुझे सर्च में वे नहीं मिले । अंतरजाल पे ब्लॉगर्स चाहें तो थोडा वक्त निकाल कर अपने क्षेत्र के इन नामों को उनके कार्य के साथ डाल सकतें है । मैं ने तो कमोबेश ये कराने की कोशिश की है । छायावादी कविता के ध्वजवाहकों में अप्रेल २००६ को जबलपुर के ज्योतिषाचार्य लक्ष्मीप्रसाद पाठक के घर जन्में केशव पाठक ने एम ए [हिन्दी] तक की शिक्षा ग्रहण की किंतु अद्यावासायी वृत्ति ने उर्दू,फारसी,अंग्रेजी,के ज्ञाता हुए केशव पाठक सुभद्रा जी के मानस-भाई थे । केशव पाठक का उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..">उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..[०१] करना उनकी एक मात्र उपलब्धि नहीं थी कि उनको सिर्फ़ इस कारण याद किया जाए । उनको याद करने का एक कारण ये भी है-"केशव विश्व साहित्य और खासकर कविता के विशेष पाठक थे " विश्व के समकालीन कवियों की रचनाओं को पड़ना याद रखना,और फ़िर अपनी रचनाओं को उस सन्दर्भ में गोष्टीयों में पड़ना वो भी उस संदर्भों के साथ जो उनकी कविता की भाव भूमि के इर्द गिर्द की होतीं थीं ।समूचा जबलपुर साहित्य जगत केशव पाठक जी को याद तो करता है किंतु केशव की रचना धर्मिता पर कोई चर्चा गोष्ठी ..........नहीं होती गोया "ब्रह्मराक्षस के शिष्य " कथा का सामूहिक पठन करना ज़रूरी है। यूँ तो संस्कारधानी में साहित्यिक घटनाओं का घटना ख़त्म सा हो गया है । यदि होता भी है तो उसे मैं क्या नाम दूँ सोच नहीं पा रहा हूँ । इस बात को विराम देना ज़रूरी है क्योंकि आप चाह रहे होंगे [शायद..?] केशव जी की कविताई से परिचित होना सो कल रविवार के हिसाबं से इस पोस्ट को उनकी कविता और रुबाइयों के अनुवाद से सजा देता हूँ
सहज स्वर-संगम,ह्रदय के बोल मानो घुल रहे हैं शब्द, जिनके अर्थ पहली बार जैसे खुल रहे हैं . दूर रहकर पास का यह जोड़ता है कौन नाता कौन गाता ? कौन गाता ? दूर,हाँ,उस पार तम के गा रहा है गीत कोई , चेतना,सोई जगाना चाहता है मीत कोई , उतर कर अवरोह में विद्रोह सा उर में मचाता ! कौन गाता ? कौन गाता ? है वही चिर सत्य जिसकी छांह सपनों में समाए गीत की परिणिति वही,आरोह पर अवरोह आए राम स्वयं घट घट इसी से ,मैं तुझे युग-युग चलाता , कौन गाता ? कौन गाता ? जानता हूँ तू बढा था ,ज्वार का उदगार छूने रह गया जीवन कहीं रीता,निमिष कुछ रहे सूने. भर क्यों पद-चाप की पद्ध्वनि उन्हें मुखरित बनाता कौन गाता ? कौन गाता ? हे चिरंतन,ठहर कुछ क्षण,शिथिल कर ये मर्म-बंधन , देख लूँ भर-भर नयन,जन,वन,सुमन,उडु मन किरन,घन, जानता अभिसार का चिर मिलन-पथ,मुझको बुलाता . कौन गाता ? कौन गाता ?
सन्दर्भ ०१:काकेश की कतरनें